ना कोई अन्य
बस शून्य।
तुज से मिल
हो जावू धन्य, ओ शून्य।
ओ शून्य,
वृत हो तुम, प्रवृत हो तुम।
तुम से उठती वृत्ति मेरी।
तुम शून्य, प्रकृति
में देखु, सुनयन।
तुम से ही तो हे सारी तृप्ति
पर यह कैसा सयन,
ओ शून्य।
ओ शून्य,
एक हो तुम फिर क्यों ,
करना पड़ता बार बार चयन?
क्यों लगता एक तू अनेक
हो यहीं पर ना देख पाए नयन।
होठो पर रहे शून्य गयन,
शांति मे रहू सदा मगन।
ओ शून्य,
तुम जो मिलो तो
हो जावू धन्य
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