जब हो जाता मे गुमराह,
पथ से भटकूँ या ठहरु
साथी तुम, रथी बनते तुम,
जानते तुम हो जो उनका पता,
वही से जो तुम आये हो,
मेरी गति बनाये रखते हो,
जैसे मेरे प्रभु तुम मांहि हो, ओ पत्थर।
पत्थर , कह कर अब तक पहचाना तुम्हे,
पर न जाना था कि,
तुम कितने तप कर बैठे हो।
ऊर्जा को संचित रख
बिन क्रोध तुम ठोकरों मे बैठे हो।
गति तुम्हारी इतनी वेगवंत, फिर भी
सदा तुम कैसे स्थिर दिखते हो?
लहर लहर वो सब चली गई,
तुम अपने अंदर ठहर गए।
खुद को तरास, खुदी मे रह गये।
छोड़ना था वो छोड पीछे,
तुम आगे बह गये।
तोड़ना था तो तोड़ कर,
तुम नए रूप मे ढल गये।
धूल बने या स्फटिक बनो तुम
पथिक की स्मृति में तुम अंकित हो गए,
मेरे परम के प्रतीक तुम आज बन गये,
ओ पत्थर, तुम राह दिखाते यह कह गये
जिसे सुन मे फिर से स्त्रोत से जुड़ गया,
नए प्राण तुम जीवन मे अर्पित कर गये।
पानी,धूप, हवा, धरती व आकाश को धारण कर रहे,
क्या दे तुम्हे, बस वंदित हो गीत लिखू, गान करू
परम् को अणु और अणु मे परम् को जान, ध्यान रखु।
1 comment:
Waah Kya baat hei Vaibhav ji
Large Raho in your wonderful journey
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